शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

कॉफ़ी शॉप

की: हे ! रियली सॉरी हाँ , तुम बहुत देर से वेट कर रहे थे !

का: ओह चिल  ! नो प्रॉब्स ('की' की तरफ हाथ बढ़ाते हुए) क्या हाल हैं?

की: (मुस्कुरा कर हाथ मिलाती है) परफेक्ट ! तुम सुनाओ  

का: बस वही सब पुरानी ऑफिस की बातें और घर के किस्से कहानियां। अच्छा बताओ क्या पियोगी !

की: ज़रा वो मेनू पास करना ना ! (मेनू पढ़ने लगती है)

का: वैसे मेरा सुझाव है कि तुम्हे ब्राजीलियन कॉफ़ी आज़मानी चाहिए । हमेशा याद रखोगी 

की: (मुस्कुराते हुए उसकी तरफ देखती है, वेटर को बुलाती है और आर्डर देती है) एक दार्जिलिंग स्पेशल लेमन 

आईस  टी (का को देखते हुए) तुम ब्राजीलियन कॉफ़ी लोगे, राईट ! 

का (थोडा खिसियाते हुए): हम्म राईट 

'की' आर्डर देने में व्यस्त है। 'का', 'की' पर  नज़रें दौड़ाना शुरू करता है। 'की' की तंग शर्ट के पीछे उसके उभारों 

की नाप लेता है। उसकी लम्बी टाँगों के बारे में सोचता है। उसकी नर्म और गोरी त्वचा 'का' की आँखों में फैलने 

लगती है। भला कैसा होगा 'की' के साथ सोने का अनुभव ! काफी बोल्ड है तो शायद थोड़ी खूँखार होगी बिस्तर 

पर। ये सोचते ही 'का' के चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कराहट तैर जाती है। तभी 'की' के चेहरे पर उसकी नज़र 

पड़ते ही दिमाग कुढ़ते हुए बोलता है 'ऊंह ! बड़ी रूड किस्म की है" ! हाँ मगर मज़ा तो काबू करने में ही है ना ! 

अचानक 'का' आत्मविश्वास से लबरेज़ हो उठता है । 

'का ' (एकदम खुली हुई आवाज़ के साथ ):  तो सिर्फ डांसिंग ! और  क्या करती हो वीकेंड पर ? सिंगल इंडिपेंडेंट 

मगर अकेली ज़िन्दगी तंग नहीं करती तुम्हे ?

की (एक गहरी नज़र उस पर डालती है): उम्म ! अक्सर तो नहीं मगर कभी-कभार लगता है कि कोई हो जिसके 

साथ बेपरवाह जी सको । कभी-कभी लगता है ये महानगर  'रात' को अपने भीतर ही भीतर सारा शहर निगल 

डालते हैं। जानते हो जब कभी रूममेट का खाली बिस्तर देखती हूँ, इस क़दर अकेलापन घेरता है कि  फिर सोने 

की तबियत नहीं रह जाती। उठ कर सिगरेट सुलगाते हुए हमेशा उसके धुंए में अपना अतीत ढूँढती हूँ । पूछती 

हूँ कि घर छोड़ कर आने का मकसद कितना निरर्थक हो चुका है अब। (ये कहते हुए 'की' की आवाज़, नज़रें 

और चेहरा कहीं खो जाता है)

'का' को ये बातें बड़ी अलग सी लगती हैं, उसे लगता है कि  शायद वो कुछ-कुछ समझ पा रहा है। जैसे, ऐसा 

कहीं कुछ उसके साथ भी घटित हुआ है। उसे एक अजीब सी उदासी का डर भी लगता है मगर जल्द ही वो 

इन सब बातों में जैसे सिर्फ दो ही शब्द सुनता है "रात" और 'बिस्तर'. बाकी सब बेमतलब और निराशापूर्ण है। 

'का' (अपने चेहरे पर 'की' की बातों का असर लाने की पूरी कोशिश के साथ): हम्म सच कहती हो तुम ! यहाँ तो 

बड़े शहरों में ऐसा ही है। (थोडा रुक कर)  तो अब तक क्या  अकेली ही रही हो? आई मीन, नो बॉयफ्रेंड !

की (बुझी आवाज़ में): लोगों में रिश्ते निभाने की तमीज कहाँ ! हर रिश्ता जैसे दाल-भात हो गया है। खाओ 

पियो पचाओ और अगले दिन उत्सर्जित कर दो। आह ! खैर ये सब तो चलता ही रहेगा ! आप सुनाइए कुछ 

अपने बारे में !

'का' अब तक थोडा मायूस हो गया है। कैसी मनहूस बातें कर रही है कमबख्त सुबह से। सोशल नेटवर्किंग 

प्रोफाइल में इतनी हँसती, मुस्कुराती, ललचा के पास बुलाने वाली तस्वीरें और मिलने पर किसी सेल्स गर्ल से 

ठगे होने का एहसास। 'का' थोडा उकता  कर कुछ कहना चाहता है मगर फिर एक आखिरी बार कोशिश करता

 है। 

'का': हाँ ..अब यहाँ शहरों में रिश्तों को इतनी अहमियत देने का वक़्त किसके पास है भला ! देखिये ना  सिर्फ 

साथ सोने के लिए लोग नाम भर को जुड़े हुए हैं। ठीक है कि 'सेक्स'  ज़रूरी है मगर हाँ दाल-भात नहीं होना 

चाहिए (अर्ररर  ! ये क्या कह बैठा ! संभालता है ) आई मीन ! कभी-कभी  चाहिए कोई ..जो पास बैठे ..तुम्हारे 

लिए शाम को घर का दरवाज़ा खोले। तुम्हे देख कर मुस्कुराए  (ओह माई गॉड ! ये क्या बोल रहा हूँ मैं ! मगर 

वाह ! नॉट बैड ! अच्छा बोल रहा हूँ यार !)  कोई जो थकी शामों को आपका सहारा बने और रात में (फिर 

कमबख्त गड़बड़ !) 

शुक्र है कि 'की' का फ़ोन सही वक़्त पर बजा वरना 'का' सचमुच नहीं जानता था कि वो क्या बोल रहा है ! हाँ 

मगर कमाल है ! उसमें ये प्रतिभा भी है, इसका तो उसे अंदाज़ा ही नहीं था । यार 'की' सचमुच कमाल दिखती 

है। फ़ोन पर बात करते हुए भी कितनी खूबसूरत लगती है। मगर कमबख्त कुछ ज्यादा ही दिमाग लगाती है 

हर जगह ! अरे अभी तुम्हारी उम्र ही क्या हुई है यार ! मुश्किल से कोई पच्चीस बरस की होगी  और कहाँ 

ये बुजुर्गों वाले नुस्खे ! कितना अच्छा होता कि थोडा कम सोचा करती तो अभी तक हम दोनों इस भरे-पूरे 

सन्डे को इस बेजान कॉफ़ी शॉप में नहीं बल्कि मेरे घर के बेडरूम में लिपटे हुए होते। 'का' ये सोचते सोचते 

उदास सा हो गया। 

'की' (अपना सामान समेटते हुए) :सन्डे को भी फुर्सत नहीं । चलो अब मैं निकलती हूँ। बहुत अच्छा लगा 

तुमसे मिल कर। कभी फुर्सत हो तो मेरा 'डांस परफॉरमेंस' देखने ज़रूर आना। सी यू लेटर। बाय !


'का' के दिमाग में सिर्फ 'परफॉरमेंस' अटक कर रह गया था। हाथ मिला कर मुस्कुराते हुए बाय बोला और 

फिर दूर तक जाती हुई 'की' को देखता रहा। कुछ अच्छा लगा और कुछ खराब। बता नहीं सकता क्या अच्छा 

था और क्या खराब। बस मन ही मन सोचा "इतनी बुरी भी नहीं है। कुछ ज्यादा ही डरा देती है। काश इतनी 

ईमानदार न होती ! 'की' जानती थी 'का' उसे अभी तक जाते हुए देख रहा होगा। उसका मन एक क्षण के लिए

पिघल उठा। सोचा  "ईमानदारी  और साहस अलग-अलग कितने बेजान लगते हैं। कैसा होता ! गर वो बेबाकी

से वही कहता जो कहना चाहता है। मगर अपने आप को प्रस्तुत करने का साहस किसे है !  वो अकेले सोते हुए 

थक गयी है मगर लोग अकेले जागते हुए नहीं थके !

   

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