शुक्रवार, 9 मई 2014




सुबह की तेज़ धूप का एक छींटा उसके चेहरे पर पड़ा। उसने चादर सर तक खींच ली । मगर थोड़ी देर बाद ही

पसीने से भीगे चेहरे के साथ चिढ़ती हुई वो बिस्तर से उठ खड़ी हुई । रेडियो ऑन किया । आईने के पास खड़े

होकर, चेहरे की लकीरों को गौर से देखा ।  एक हाथ को रूखे बालों में उलझाया और दूसरे  से पास पड़ी हुई

सिगरेट को उठा कर मुँह में डाल लिया। थोड़ी देर तक ना माचिस मिली और ना ही लाइटर ।  गालियाँ देते हुए

 चीजों को यहाँ-वहां पटक कर ढूंडा और फिर धम  से फर्श पर बैठ गयी। अब क्या ! साला सुबह-सुबह ही सारी

मनहूसियत छा गयी। पास में देखा फ़ोन बज रहा था, उठा के देखा,  मॉम ! वापस रख दिया ।


बिल्डिंग के नीचे पान-बीडी की छोटी से दूकान से माचिस उठा कर पहला कश सुलगाया । आह ! कलेजे को

सुकून और दिल को करार ! पास खड़े एक घूरते हुए आदमीनुमा नमूने  को पलट कर घूरा और वापस कमरे

तक आयी । गैस पर चाय का पतीला चढ़ा कर, रेडियो ऑफ किया और  टीवी ऑन । कमरे में चहलक़दमी

करने लगी थी कि अचानक सामने नज़र पड़ी। कलाई भर तक लाल-सफ़ेद चूड़ियों के साथ, गीले बालों के बीचों

-बीच सिन्दूर, पटियाला सलवार-कमीज़   पहने वो गीले कपडे धूप में फैला रही थी। उसकी नज़र इधर पडी तो

सकपकाकर नज़र घुमाने की कोशिश की मगर तब तक उधर से एक मुस्कराहट भरा "हाई " पहुँच चुका  था।

उसने भी जबरन चेहरे पर एक मुस्कान की रेखा खींची । एक मिनट के लिए उसके कपड़ों के सामने अपने

कपडे नंगेपन की हद तक छोटे लगे । अब अचानक से पीठ फेर के अन्दर भी नहीं मुड़ सकती तो जबरन यहाँ-

वहां देखना शुरू किया ।  अचानक खौलती हुई चाय की याद आते ही सरपट किचन की तरफ भागी ।


चाय, टी वी, मैगजीन्स के बीच वो चुपचाप पसरी हुई है । सोचना चाहती है मगर क्या सोचे मालूम नहीं ।

अचानक याद आया कल रात 'उसकी' सोयी हुई आँखें। कितनी भली लगती हैं। कमबख्त ! कितना खुदगर्ज़

 है। दुनिया भर का लाड़ -प्यार दिखलायेगा, सिर्फ उसके साथ पसरने  के लिए।  उसके जिस्म के हर हिस्से

तक उसकी पहुँच है। सिर्फ उसका अधिकार। तो भी 'वो ' किसी और के गले में मंगलसूत्र डालेगा। किसी और

को अपनी 'ब्याहता' होने के खिताब से नवाजेगा। खैर, उसे भी कौन सा पड़ी  है, ये सब पाखंड करने की। वो भी

तो अपनी दुनिया में खुश है, मगन है।


 'खुश', क्या सचमुच ! आखिरी बार खुल कर कब हँसी वो !


जब 'उसने' उसकी बढ़ती हुई कमर की तारीफ़ में कसीदे गड़े थे, उसकी आँखों की शरारती चमक, उसके बोलने

का अंदाज़, इसे भीतर तक गुदगुदा कर रख देता है। कई बार यूँ ही, रास्ते में चलते-फिरते, बस में बैठे-बैठे,

ऑफिस की फाइलों के बीच, नहाते वक़्त खुद को देखते हुए या किचन में सब्जी-तरकारी पकाते वक़्त उसे

अनायास ही उसके  ये जुमले याद हो आते हैं और वो मुस्कुराने लगती है, हंसने लगती है,  कभी-कभी तो

बेसाख़्ता हँसी पर काबू  ही नहीं रहता।


याद है ! जब पहली दफे उसने बोला था  "आपका फिगर आपकी उम्र को मात देता है मिस" तो इसने किस

क़दर  खुद को रोका कि उम्र के इस पड़ाव पर जब  कान ये सब सुनने को तरस रहे हैं तब इस लड़के ने

जाने क्या दे दिया है उसे कि वो चाहती है उसे बरबस चूम ले, बगैर किसी की परवाह किये। कौन जाने उसकी

इन सब बातों का मकसद इसे हासिल करना था या सचमुच ! अगर था भी तो वो यकीन नहीं करना चाहती।

ज़रुरत की दरकार इसे भी थी। इसके आस-पास कई लोग इसे आँखों-आँखों में ही मानों बोटी-बोटी चबा डालते

थे, इन सबके बीच किसी ने इसे बगैर लाग-लपेट  के जब बातों भर से छू लिया तो वो बेझिझक उसके साथ सो

गयी। दुर्भाग्यापूर्वक 'मर्द के साथ सोना और दुनिया की मुहर लगे हुए मर्द के साथ सोना' रिश्तों को देखने का

एक ऐसा ले मैन दायरा है जिस से खुद मर्द ज़ात ही आज़ाद  नहीँ है. यदि उसकी देह और इच्छाओं को इस

एक विशेषाधिकार  की श्रेणी में ना रखा जाता है तो !


तो वो पूरी दुनिया को साबित कर देती कि समर्पण की सीमाओं को वो किस हद तक ले जाकर एक बिलकुल

नए किस्म का मापदंड खड़ा कर देती और दुनिया के हर इंसान को हैरान कर देती।


तभी पास पड़ा  हुआ फ़ोन बज उठा. कोसते हुए जैसे ही फोन उठाया वैसे ही फोन पर उसका नाम देख

कर अचानक दोपहर की धूप सुनहरी हो गयी.  मुस्कुराते हुए निहायत ही नर्म आवाज़ के साथ उसने बात

करनी शुरु की :

"हम्म .. . .  अच्छा तो !

(थोड़ी देर की चुप्पी )

"अच्छी बात है ना, जाकर देख आओ लड़की। मुझसे क्यों डिस्कस कर रहे हो बेकार में !

(फिर चुप्पी)

"रखती हूँ मैं।  विल टॉक टू यू लेटर। नहीं आई ऍम ऑलराइट।। हाँ ओके !"

फ़ोन धीमे से एक तरफ़ फेंका और वो मुँह ढांप कर लेट गयी

सोचते-सोचते उसे लगने लगा कि वो उबकाई कर देगी। दिमाग में कितना कुछ था जो अपच कर रहा था.






  

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

खुली खिड़की


उसकी आँखें, उसका हाथों को अक्सर बेपरवाह हिलाते हुए चलना, बेवजह पीछे मुड़ कर मुस्कुराने की आदत, मानो पूरी दुनिया का शौक़ बस उसी तक सिमट कर रह गया हो, उसके पीले कुर्ते पर लहराता लाल दुपट्टा, ये सब  अब भी मेरी आँखों में किसी पुराने यादगार सपनें जैसा अटका हुआ है। वो सभी के जैसी है मगर सबसे अलग होने का नाटक करती है कम्बख्त

पुरानी गली के आख़िरी छोर से ठीक दो दरवाज़े पहले उसका दुमंजिला घर दिखाई पड़ता है। ये बात सिर्फ मुझे ही नहीं बल्कि वहां से गुजरने वाले अमूमन हर राहगीर को मालूम है। २१ बरस की एक जवान लडकी अपनी पतली कमर, लम्बी चोटी, और बड़ी-बड़ी आँखें फैलाये हर आने-जाने वाले को ताकेगी तो भला उसे  कौन, कब तक अनदेखा कर सकता है ! और जो करते भी हैं ना, वो महज़  नाटक करते हैं। चोरी छुपे, कनखियों से उसे देखने वालों को भी देखा है मैंने, कई बार। मेरे मोहल्ले का एक झोला छाप शायर उसकी अदाओं पर इस कदर फ़िदा है कि सस्ती शायरियों की पूरी दूकान खड़ी कर रखी है उस पर। 

हाँ, अदाओं से याद आया ! किसी ड्रामा कम्पनी में काम करती है शायद। आये दिन हाथ में कागज़ लेकर अपनी खिड़की के सामने अजीबोगरीब चेहरे बनायेगी, वाद-संवाद करेगी, और साथ ही हर आने जाने वाले पर नज़र डालती रहेगी। शुरू-शुरू में लगा कि शायद लोगों को रिझाने के लिए ये सब नाटक हो रहा है मगर धीमे-धीमे मैंने गौर से देखा कि नहीं, ये दो काम समानांतर और भिन्न-भिन्न शौक हैं जो हमेशा चलते हैं। रीझना-रिझाना और ड्रामा रिहर्सल दोनों ही उसके पसंदीदा काम हैं। रीझती है लोगों की नज़रों पर या रिझाने की फिराक में रहती  है, ये तय करना बहुत मुश्किल है। गुलाबी रंगों के हलके चमकीले पर्दों वाली खुली खिड़की पर वो किसी पेन्टिंग की तरह लगती है। 

उसकी आँखों में क्या  छुपा होता है ये जानने के लिए उसके करीब तक जाना पड़ेगा। करीब मतलब बहुत ही ज्यादा करीब क्यूंकि उसके चेहरे के भाव ऐसे लगते हैं मानो किसी ने खुले दरवाज़े पर भी कई ताले जड़ रखे हों। वो भरपूर नज़रों से देखती है आते-जाते जवाँ मर्दों को। ऐसा नहीं कि हमउम्र औरतों में उसकी दिलचस्पी नहीं मगर मर्दों से एक ख़ास किस्म का लगाव मालूम होता है। भरपूर नज़र डाल कर वो उनका मुआयना बड़ी ही बेशर्मी के साथ करती है। फिर एक जानलेवा मुस्कराहट का तीर जो कभी-कभी उसके 'सस्तेपन' पर मुहर लगा देता है। अब भला अच्छे घरों की लड़कियां ये सब करती हैं कभी ! वैसे एक खूबसूरत खिड़की वाला घर देख कर तो भला ही लगता है  तो फिर ज़रूर माँ -बाप ने ढील दे रखी होगी। इकलौती होगी, तभी ना इतनी लाल-गुलाबी सेहत है !  

मुझे सचमुच नहीं मालूम कि उस घर में कितने लोग हैं। उसके अम्मा-बाबा और बाकी किस्म के खानदानी ब्यौरे, मुझे कुछ भी नहीं मालूम। मगर कुछ बात है उस लडकी की आँखों में ! निमंत्रण के साथ अस्वीकारिता भी है, जैसे वो खुद ही ना जानती हो कि उसे क्या चाहिए। तो भी उसकी आँखों का आमंत्रण भूले से एक दिन भी धुंधला नहीं पड़ता। 

नीचे चलते राहगीर उसे कई जायकों के साथ ताकते हैं और वो किसी 'प्रोफेशनल' की तरह सबसे अलग अंदाज़ में निपटती है। जैसे बहुत अच्छे हाजमे के नुस्खे पढ़ कर आयी हो। आँखों में लबालब प्यार, तुच्छता का एहसास करने वाली धिक्कारती आँखें,  सस्तेपन का जवाब कहीं ज्यादा सस्तेपन के साथ देते, हाथों के भद्दे इशारे, चोरी-छुपे तिरछी नज़रों से आँख भर देखने वाले और उसे पगली समझ कर मुस्कुराती बूढी नज़रें, सब कुछ था उसके घर की खुली हुई खिड़की के नीचे गिरे हुए रास्ते पर। 

पिछले कुछ दिनों से अचानक उसके चेहरे पर एक एक चमक सी गयी है। अब वो एक नियत समय पर आकर खिड़की से नीचे ताकते हुए किसी को नहीं देखती। हैंबड़ी हैरानी है सबको, सब उसकी तरफ देखते हैं और वो जाने किसकी तरफ देखती है ! आगे-पीछे, ऊपर-नीचे सभी तरफ मुड़ कर देखा तो कोई दिखा नहीं। लोगों ने इशारों से पूछा , क्या ! क्या चाहिए तुम्हे ! मगर वो कुछ बोली। अचानक एक दिन सबने देखा, एक उजले बदन वाला, बीस-इक्कीस बरस का खूबसूरत लौंडा उस खिड़की की तरफ हैरानी से देख रहा है। एक लडकी है, जो गुलाबी पर्दों वाली एक खिड़की से उसे ताके ही जा रही है, बेशर्मों की तरह, अजीब से कांपती हुई मुस्कराहट है  लगता है बगैर किसी इशारे के उसे अपने पास बुला रही है, उसे यकीन नहीं हुआ। क्या सचमुच बुला रही है ! गौर से उसकी आँखों की तरफ देखा, हाँ बुला तो रही है मगर एक मिनट , उसके चेहरे को देख कर नहीं लगता। लड़का रोज़ इसी असमंजस में उस रास्ते से गुज़रते हुए ऊपर की तरफ देखता है। आज उसने सोचा कि वो अब यहाँ से आगे नहीं बढेगा, चाहे जो हो जाये ! बस वो खड़ा होकर ताकते रहा,  तब तक, जब तक उसके क़दमों में एक सफ़ेद कागज़ के पुर्जे में लिपटा पत्थर नहीं गिरा। उठा कर देखा, बंद पुडिया के भीतर सुन्दर से अक्षरों में लिखा था "तुम बहुत सुन्दर हो" साथ ही दो फूल बने हुए थे, एक दिलनुमा आकार से एक तीर भी आर-पार हो रहा था। बस ! अब शक की कोई गुंजाइश ही ना थी। उसने नज़रें उठा कर ऊपर की तरफ इशारा करते हुए बेधड़क घर के भीतर घुसने का रास्ता पूछा, लडकी ने एक दरवाज़े की तरफ इशारा किया, लड़का भारी-भरकम दरवाज़ों की सांकल हटा कर अन्दर की तरफ आया।   ऊपर की तरफ जाने वाली सीड़ियों पर अँधेरा पसरा हुआ था। उसका पूरा शरीर रोमांच से भर उठा, इस वक़्त ये अँधेरा उसे किसी लड़की के बदन से लिपटे हुए दुपट्टे सा लगा, जिसे हटाने के लिए वो बेताब था। तेज़ी से ऊपर की तरफ सीडियां चढ़ते हुए उसकी धडकनें तेज हो रही थी, साँस फूल रही थी, लगभग हाँफते हुएपसीने के साथ वो उस लडकी के कमरे में दाखिल हुआ।

सामने ही लड़की खड़ी थी। वही पीले कुर्ते पर फ़ैला लाल दुपट्टा, लम्बी सी चोटी को सामने की तरफ लापरवाही से बिखराए वो उसकी नज़रों के ठीक सामने खड़ी थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें लड़के को देखने के बाद, सकपका कर यहाँ-वहां घूमने लगी। मगर लड़के को जैसे एक पल के लिए सांप सूंघ गया। उस गुलाबी खिड़की के पीछे की दुनिया किसी उजड़े हुए चमन से कम नहीं थी। दीवारों पर उखड़ा हुआ प्लस्तर, धूल सने हुए कमरे में पलंग तो छोड़ो एक कुर्सी तक नहीं थी। एक फटी हुई दरी, कोने में  रखे कुछ बर्तन, दीवार पर ब्लैक एंड व्हाइट तसवीरें जिनकी धुन्ध्लाहट एक कदम आगे बढ़ कर उनकी परत-परत तक निकाल चुकी थी। उसे एक पल के लिए यकीन नहीं हुआ कि इस लड़की की ज़िन्दगी इस कमरे में क़ैद है। शायद, शायद कोई दूसरे कमरें भी हों, मतलब, मतलब इस गंदी फटी हुई दरी पर कैसे ! लेकिन कुछ और भी था जो इस संभ्रांत लड़के को दिख रहा था। लडकी की कमीज़ और सलवार पर लगे हुए पैबंद। वो हैरान था कि  कैसे एक खुली हुई खिड़की के परे इतना बड़ा संसार छुपा हुआ  हो सकता है। "आप कुछ लेंगे ?" लड़की ने कमज़ोर इशारे के साथ पूछा। लड़का एक मिनट के लिए खोया सा रहा फिर दिल कड़ा करके लड़की के पास खड़ा हो गया। 

लड़की ने मुस्कुराकर उसके जवान चेहरे की तरफ देखा  और एक अजीब से भाव के साथ आँखें नीची कर ली। जैसे उसका अब तक शर्माने का कोई तजुर्बा ही ना रहा हो। लड़के ने धीमे से उसके कंधे पर पड़ा हुआ दुपट्टा नीचे गिरा दिया तो लडकी ने तुरंत अपने कुर्ते की बाँह पर फटा हुआ छेद अपने दायें हाथ से ढकते हुए लड़के की तरफ अजीब नज़रों से देख। लड़के को शर्मिन्दगी का एहसास हुआ, समझ नहीं आया कि  क्या करे ! उसके लिए वहां खड़े रहना दूभर था मगर इस मौके को छोड़ कर वापस चले जाना ! कौन यहाँ फिर दुबारा आना चाहेगा ! उसने पल भर के लिए सोचा, जेब में हाथ डाला और जितने भी रुपैये थे सब निकाल कर एक हाथ से उस लड़की के आगे कर दिये। शुक्र है कि हज़ार के दो नोट उस लड़की के नज़रों के सामने आये। लड़के ने सुकून की साँस ली ही थी कि अचानक लड़की ने उसकी तरफ घृणा भरी हुई आँखों से देखा और फिर पीठ फेर कर खड़ी हो गयी। अब लड़के को थोड़ा कुढ़न सी होने लगी थी, ऐसे भी क्या तेवर हैं भला ! लड़के ने थोड़ा कस कर उसका हाथ पकड़ते हुए, उसका चेहरा अपनी तरफ किया और बोला, "अभी इतना ही है, बाद में लाकर दे दूँगा बाकी पैसा। अगले छह महीने तक कोई तंगी नहीं रहेगी" लडकी ने उसकी तरफ गुस्से से देखा और दौडती हुई अपनी खिड़की पर पहुँची और चिल्लाना शुरू किया। लोगों ने शायद पहली दफे उसकी आवाज़ सुनी। लड़का स्तब्ध था। लडकी अपने गले से अजीबोगरीब आवाज़ में चिल्लाने की कोशिश कर रही थी और साथ ही रो रही थी। उसकी घुटी हुई गूंगी आवाज़ एक हैरानगी के साथ लड़के के चेहरे पर पसरी हुई थी। वो चुपचाप घर से बाहर निकल गया।

खिड़की पर खड़ी लड़की की नज़रें लड़के की पीठ पर जमी हुई थी और लड़के को बहुत देर तक अपनी पीठ पर मानो कांटे से चुभते रहे।

मेरे शायर दोस्त ने मुझे खुली हुई खिड़की पर एक बेहद ही सस्ता सा चलताऊ किस्म का शेर सुनाया था । उसका कहना था कि खुली हुई खिड़की ललचाती ज़रूर है मगर कौन जाने किसके लिए और क्यूँ खुली हुई हो।

आज मुझे उसका शेर सस्ता नहीं लगा।