सुबह की तेज़ धूप का एक छींटा उसके चेहरे पर पड़ा। उसने चादर सर तक खींच ली । मगर थोड़ी देर बाद ही
पसीने से भीगे चेहरे के साथ चिढ़ती हुई वो बिस्तर से उठ खड़ी हुई । रेडियो ऑन किया । आईने के पास खड़े
होकर, चेहरे की लकीरों को गौर से देखा । एक हाथ को रूखे बालों में उलझाया और दूसरे से पास पड़ी हुई
सिगरेट को उठा कर मुँह में डाल लिया। थोड़ी देर तक ना माचिस मिली और ना ही लाइटर । गालियाँ देते हुए
चीजों को यहाँ-वहां पटक कर ढूंडा और फिर धम से फर्श पर बैठ गयी। अब क्या ! साला सुबह-सुबह ही सारी
मनहूसियत छा गयी। पास में देखा फ़ोन बज रहा था, उठा के देखा, मॉम ! वापस रख दिया ।
बिल्डिंग के नीचे पान-बीडी की छोटी से दूकान से माचिस उठा कर पहला कश सुलगाया । आह ! कलेजे को
सुकून और दिल को करार ! पास खड़े एक घूरते हुए आदमीनुमा नमूने को पलट कर घूरा और वापस कमरे
तक आयी । गैस पर चाय का पतीला चढ़ा कर, रेडियो ऑफ किया और टीवी ऑन । कमरे में चहलक़दमी
करने लगी थी कि अचानक सामने नज़र पड़ी। कलाई भर तक लाल-सफ़ेद चूड़ियों के साथ, गीले बालों के बीचों
-बीच सिन्दूर, पटियाला सलवार-कमीज़ पहने वो गीले कपडे धूप में फैला रही थी। उसकी नज़र इधर पडी तो
सकपकाकर नज़र घुमाने की कोशिश की मगर तब तक उधर से एक मुस्कराहट भरा "हाई " पहुँच चुका था।
उसने भी जबरन चेहरे पर एक मुस्कान की रेखा खींची । एक मिनट के लिए उसके कपड़ों के सामने अपने
कपडे नंगेपन की हद तक छोटे लगे । अब अचानक से पीठ फेर के अन्दर भी नहीं मुड़ सकती तो जबरन यहाँ-
वहां देखना शुरू किया । अचानक खौलती हुई चाय की याद आते ही सरपट किचन की तरफ भागी ।
चाय, टी वी, मैगजीन्स के बीच वो चुपचाप पसरी हुई है । सोचना चाहती है मगर क्या सोचे मालूम नहीं ।
अचानक याद आया कल रात 'उसकी' सोयी हुई आँखें। कितनी भली लगती हैं। कमबख्त ! कितना खुदगर्ज़
है। दुनिया भर का लाड़ -प्यार दिखलायेगा, सिर्फ उसके साथ पसरने के लिए। उसके जिस्म के हर हिस्से
तक उसकी पहुँच है। सिर्फ उसका अधिकार। तो भी 'वो ' किसी और के गले में मंगलसूत्र डालेगा। किसी और
को अपनी 'ब्याहता' होने के खिताब से नवाजेगा। खैर, उसे भी कौन सा पड़ी है, ये सब पाखंड करने की। वो भी
तो अपनी दुनिया में खुश है, मगन है।
'खुश', क्या सचमुच ! आखिरी बार खुल कर कब हँसी वो !
जब 'उसने' उसकी बढ़ती हुई कमर की तारीफ़ में कसीदे गड़े थे, उसकी आँखों की शरारती चमक, उसके बोलने
का अंदाज़, इसे भीतर तक गुदगुदा कर रख देता है। कई बार यूँ ही, रास्ते में चलते-फिरते, बस में बैठे-बैठे,
ऑफिस की फाइलों के बीच, नहाते वक़्त खुद को देखते हुए या किचन में सब्जी-तरकारी पकाते वक़्त उसे
अनायास ही उसके ये जुमले याद हो आते हैं और वो मुस्कुराने लगती है, हंसने लगती है, कभी-कभी तो
बेसाख़्ता हँसी पर काबू ही नहीं रहता।
याद है ! जब पहली दफे उसने बोला था "आपका फिगर आपकी उम्र को मात देता है मिस" तो इसने किस
क़दर खुद को रोका कि उम्र के इस पड़ाव पर जब कान ये सब सुनने को तरस रहे हैं तब इस लड़के ने
जाने क्या दे दिया है उसे कि वो चाहती है उसे बरबस चूम ले, बगैर किसी की परवाह किये। कौन जाने उसकी
इन सब बातों का मकसद इसे हासिल करना था या सचमुच ! अगर था भी तो वो यकीन नहीं करना चाहती।
ज़रुरत की दरकार इसे भी थी। इसके आस-पास कई लोग इसे आँखों-आँखों में ही मानों बोटी-बोटी चबा डालते
थे, इन सबके बीच किसी ने इसे बगैर लाग-लपेट के जब बातों भर से छू लिया तो वो बेझिझक उसके साथ सो
गयी। दुर्भाग्यापूर्वक 'मर्द के साथ सोना और दुनिया की मुहर लगे हुए मर्द के साथ सोना' रिश्तों को देखने का
एक ऐसा ले मैन दायरा है जिस से खुद मर्द ज़ात ही आज़ाद नहीँ है. यदि उसकी देह और इच्छाओं को इस
एक विशेषाधिकार की श्रेणी में ना रखा जाता है तो !
तो वो पूरी दुनिया को साबित कर देती कि समर्पण की सीमाओं को वो किस हद तक ले जाकर एक बिलकुल
नए किस्म का मापदंड खड़ा कर देती और दुनिया के हर इंसान को हैरान कर देती।
तभी पास पड़ा हुआ फ़ोन बज उठा. कोसते हुए जैसे ही फोन उठाया वैसे ही फोन पर उसका नाम देख
कर अचानक दोपहर की धूप सुनहरी हो गयी. मुस्कुराते हुए निहायत ही नर्म आवाज़ के साथ उसने बात
करनी शुरु की :
"हम्म .. . . अच्छा तो !
(थोड़ी देर की चुप्पी )
"अच्छी बात है ना, जाकर देख आओ लड़की। मुझसे क्यों डिस्कस कर रहे हो बेकार में !
(फिर चुप्पी)
"रखती हूँ मैं। विल टॉक टू यू लेटर। नहीं आई ऍम ऑलराइट।। हाँ ओके !"
फ़ोन धीमे से एक तरफ़ फेंका और वो मुँह ढांप कर लेट गयी
सोचते-सोचते उसे लगने लगा कि वो उबकाई कर देगी। दिमाग में कितना कुछ था जो अपच कर रहा था.