बुधवार, 16 जनवरी 2013

बीमार

उसे चुभती हैं टूटे मन की किरचें ।  उसकी नसों में गड़-गड़  कर वो लहू के ज़रिये सफ़र तय करती हैं।  शरीर की पोर-पोर से रिसती रहती हैं, सीलन भरी दीवारों की तरह ।  रिश्तें चूंते रहते हैं, टपकते हैं बूँद-बूँद, रह-रह कर । किसी ने, हाँ ! कभी किसी ने उसका हाथ अपने दिल पर रख कर उसकी मिनमीनी आँखों को चूम कर ठंडक दी थी । आज उसका पूरा मन जल जल कर स्वाहा हो गया है । वो पूरी रात बिस्तर की सिलवटें हटाती रहती है । वो तकिये पर नए फूल काढ़ते हुए अब कोई गीत नहीं गाती। उसे बीता हुआ सचमुच पुराना लगता है और नयेपन की बू बर्दाश्त नहीं होती । उसे 'आज' धुंए सरीखा धीमा धीमा उठता हुआ दिखाई देता है। 

वो !
जो बादलों के पीछे पतंग लेकर भागती थी । कंची-कंची खेल अपनी भरी हुई तिजोरियां छुपाती थी। जिसके रूखे बालों की लटों में सपनों की खुश्की माँ कंघी मार के झाड़ गिराती थी, वो लडकी आसमान से फिसल पड़ी है। कहते हैं, हौंसलों की सीढ़ी  पर बुरी नज़र की काई जम गयी थी । उसे माँ ने चलना तो सिखाया पर उछलना -कूदना नहीं । वो जब इतरा के चली तो दुनियादारी में मोंच आ गयी । मलहम भी लगा के दिया मगर कोई फर्क नहीं । उसने सोचा कि पड़ोस वाली कमला उस से ज्यादा खुशकिस्मत है क्यूंकि वो घर से निकलती ही नहीं । उसके हाथ-पाँव अब तक गोरे और मुलायम हैं । उसके नाज़ुक बदन को सभी सहेज कर रखना चाहते हैं। मगर कमबख्त इसे सब ठोक -बजा के 'ट्राय' करते हैं, मानो कोई लडकी न हुई, बर्तन-भांडा हो गयी जी ! 


उसे अब रास्तों में दरारें बर्दाश्त नहीं होती। उसे सफाई से जीने का चस्का लगा हुआ है। कभी-कभी वो अकेले कमला पर तरस खाती है । उसके अकेलेपन पर, उसके नाज़ुक मगर कमज़ोर बदन पर । उसे गले में ख़राश महसूस होती है चूँकि एक अरसे से वो चिल्लाई नहीं । मगर कमला सुबह पांच बजे जाग कर मनमोहक अंदाज़ में शास्त्रीय संगीत की तान लगाती है। उसने भरपूर कोशिश की, कि उसे कमला की आवाज़ में वो दबा हुआ दर्द मिल जाये, जिसे छुपाने के लिए कमला अलस्स्सुबह तान छेडती  है। किन्तु वो पूरी तरह असफल रही। और तो और ! हुआ ये कि  दीवार पे कान लगाये उसे देख, कमला ने उसे पास बुला कर शाश्त्रीय संगीत सीखने की नसीहत दे डाली। कमला का मानना है कि संगीत तन और मन को सुंगधित करता है । ये सुन कर उसे बड़ी हंसी आई और उसने मन ही मन सोचा कि  क्यूँ न कमला को "सुलभ शौचालय" के पास बैठा दिया जाये ! मगर कमला ने शायद उसके मन का व्यंग नहीं सुना। उसने उसे धर्म-कर्म की शिक्षा भी लगे हाथ दे डाली । जब तक वो सोचे "बेचारी कमला !" तब तक सामाजिक औरतें और मर्द कमला की बातों  पर वाहवाही कर उठे ! आह ! अब वो जल कर राख न हो जाये तो भला क्या करे ! ये मुआ समाज ! क्या वो ये सब पेट से सीख कर आई थी ! क्या उसे बड़ा मज़ा आता है 'अशिष्ट' बनने में ! क्या उसका दिल नहीं करता  कि  कुछ खूबसूरत नौजवान उसे देख कर भी अपने बालों पर हाथ फेर कर, कंधे उचकाते हुए, कोई प्यारी सी तिरछी नज़र से उसे गली के आखिरी मोड़ तक देखें । मगर नहीं ! भले मानुष को तो छोड़ ही दो, कमबख्त ये लुच्चे लफंगे भी कमला सरीखी कन्याओं से फेरे लेने चाहते हैं । हद है ये तो ! खुद को फजीहत , दुसरे को नसीहत ! 
हैं जी ! 

मतलब उसे तो सबने 'पेपर वेट' समझ कर रखा हुआ है । उड़ने वालों को संभालने का ज़िम्मा भी उसी का है और पटका जाना है सो अलग । जो भी आता है, घुमा के चला जाता है बस ! क्या है न भैया , बहुत मज़बूत है, गिर भी पड़ेगा तो टूटेगा नहीं। खैर ! वो करे भी तो क्या ! वो आईना देख कर जब भी कमला की तरह मुस्कुराने का प्रयास करती है तो होंठ कांपने लगते हैं । आदत जो नहीं ठहरी । अब उसने सोचा है, करेगी क्या ! झक मार के रहेगी इन कमलाओं के बीच । कुडती रहेगी और खुद से जुडती रहेगी । जुड़ाव क्या इतना आसान होता है !  उसने सोचा ।  मन का दर्द चाहे जीवन भर क्यूँ न रिसता रहे वो खुद को खुद से अलग नहीं करेगी । कमला का साहस अगर सब जैसा बनने  में है तो उसका सबसे अलग बनने  में । साहस जन्मजात नहीं होता, अर्जित किया जाता है । एक दिन में नहीं, एक साल में नहीं , मगर हर पल में । 

घूँट-घूँट कडवी दवा  को हल्क़  के नीचे तर करने जैसा है ये अनुभव । किन्तु वो करेगी । इसलिए नहीं, क्यूंकि अब कोई उपाय ही नहीं रहा बल्कि इसलिए ताकि सब कमला जैसे  जीने की सहूलियत के लालच के चलते बीमार ना हो जायें तो उसे ही इस महामारी को रोकने वाला जीवाणु बनना होगा । 

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