कभी चौक-चौबारों में, तो कभी नुक्कड़ की किसी दूकान के पास, कभी गलियों के पिछवाडों में तो कभी किवाड़ों की ओट में, कभी किसी पोखर-नाले के किनारे पर तो कभी आधी रात तले बुदबुदाते हुए, थोड़ा बहुत सभी से, कभी-कभी यूँ ही मन की आत-बात लुकछुप कह सुन लिया करते थे ..मगर अब तो जैसे लगता है कि "कुछ तुम बदल गए हो, कुछ हम बदल गए" ..तो बन्धु, हमें तो कहने-सुनने से मतलब है बस्स ..आप चाहे सुने-अनसुने-ना सुनें, हमारी छोटी सी बातूनी पोटली हमेशा खुलने का इंतज़ार करेगी.. कभी फुर्सत हो तो चाय पे शौक से आइयेगा ;-)
गुरुवार, 6 अक्टूबर 2011
बहुत शिद्दत से लोगों को पढ़ना चाहा..और जब पढ़ने बैठे तो ये भूल गए कि जब आप किसी को पढ़ते हैं तो वो भी बराबर आपको पढ़ रहा है..किताबें आपको सुलझाती हैं और लोग आपको उलझाते हैं. इस उधेड़बुन में ही आप जीवन के तथाकथित फलसफे को जानने-समझने का दावा करने लगते हैं. आप ज़िन्दगी पे फिकरा कसते हैं और ज़िन्दगी आप पर तंज़ करती है. मगर उम्र भी तो किसी जुवारी के दाँव सरीखी है. जब तक जोखिम ना लो तब तक मज़ा नहीं और एक मज़े की कीमत का कोई अंदाज़ा नहीं.
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