गुरुवार, 6 अक्टूबर 2011

बहुत शिद्दत से लोगों को पढ़ना चाहा..और जब पढ़ने बैठे तो ये भूल गए कि जब आप किसी को पढ़ते हैं तो वो भी बराबर आपको पढ़ रहा है..किताबें आपको सुलझाती हैं और लोग आपको उलझाते हैं. इस उधेड़बुन में ही आप जीवन के तथाकथित फलसफे को जानने-समझने का दावा करने लगते हैं. आप ज़िन्दगी पे फिकरा कसते हैं और ज़िन्दगी आप पर तंज़ करती है. मगर उम्र भी तो किसी जुवारी के दाँव सरीखी है. जब तक जोखिम ना लो तब तक मज़ा नहीं और एक मज़े की कीमत का कोई अंदाज़ा नहीं.