शनिवार, 26 नवंबर 2011

स्पंदन

छू लो चाहे झकझोर दो हमें

चींटी तक नहीं रेंगती बदन पर.

जिसको पल पल रोम-रोम में

चिंकोटी सा काटते रहे तुम

पैदा होने से अब तक ठहर-ठहर के जांचते रहे तुम

जिसको कभी दबाते कभी मारते रहे तुम

कभी नोचते, कभी चूसते, कभी आस्वादन के परजीवी सा भोगते रहे तुम

नस-नस में उतर कर सोखते रहे तुम

आज चाहो भी तो ढूँढ नहीं पाओगे

नब्ज़ टटोलो तो सकते में आ जाओगे

एक दिन मेरी तरह मर-मरा जाओगे

संवेदना की मौत पे

चुप्पी साधना सीख ले नासपीटे


गुरुवार, 6 अक्टूबर 2011

बहुत शिद्दत से लोगों को पढ़ना चाहा..और जब पढ़ने बैठे तो ये भूल गए कि जब आप किसी को पढ़ते हैं तो वो भी बराबर आपको पढ़ रहा है..किताबें आपको सुलझाती हैं और लोग आपको उलझाते हैं. इस उधेड़बुन में ही आप जीवन के तथाकथित फलसफे को जानने-समझने का दावा करने लगते हैं. आप ज़िन्दगी पे फिकरा कसते हैं और ज़िन्दगी आप पर तंज़ करती है. मगर उम्र भी तो किसी जुवारी के दाँव सरीखी है. जब तक जोखिम ना लो तब तक मज़ा नहीं और एक मज़े की कीमत का कोई अंदाज़ा नहीं.